बुधवार, नवंबर 18, 2009

" तलाश "

अपने ही नाम को पुकारता मैं चला हूँ,
अनजाने शहर मैं ख़ुद को ढूंढता हूँ।
वो मंजिल, वो रास्ता , वो डगर ढूंढता हूँ,
जो सोचा था न कभी , वो ख्वाब ढूंढता हूँ।
मेरी ही छाया अब मुझसे भागती है,
क्या कहूं मैं यारो अब तो तन्हाई काटती है।
कैसे हैं रिश्ते ये, कैसे है नाते,
अब तो आईने भी सूरत तलाशते हैं।
ख़ुद से ही यूँ बातें अब करने लगा हूँ,
की दुनिया एक शमशान लगने लगी है।
दुश्मन बन गए हैं अब वो प्यार वाले,
की फूल भी अब खिलना भूल गए हैं।
अपने ही घर में पराया हो चला हूँ,
की शरीर भी अब किराया मांगता है।
जिंदगी की कड़ी है ये न जाने कब तक,
की साँसों की बाटी भुझने लगी है।
अपने ही नाम को पुकारता चला हूँ,
अनजाने शहर मैं ख़ुद को ढूंढता हूँ॥

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