बुधवार, नवंबर 18, 2009

' एक पथिक ' - जीवन की राह पर

मैं अकेला था, अकेला हूँ और अकेला ही रहूँगा।

न संग है कोई, न साथी है कोई,
यूँ मंजिल की राह पर चला जा रहा हूँ।

डगर सुनसान है , काँटों की राह है,
राही हूँ मैं , जिसे दूर जाना है।

लेकर कंधो पर उठाये हुए , चला हूँ मैं,
लेकर होंसलों का थैला।

विश्वास के रथ पर सवार,
चला जा रहा हूँ मैं।

परिश्रम मेरी गति है, साहस मेरी चेतना,
समर्पण रूपी रोटी की गठरी लिए चला जा रहा हूँ मैं।

चट्टान की तरह अडीग हूँ, मैं राह मैं आँधियों के,
मैं वो तिनका नही जो दूसरों के धकेलने पे रास्ता ही भटक जाऊं।

सपनो की उड़ान लेकर उड़ने वाली, मैं तो वो चिड़िया हूँ,
जिसे अपने घोंसले की तलाश में , हर सम्भव दिशा मैं उड़ना है।

दूसरों के सहारे आख़िर कब तक जियूँगा मैं,
आख़िर सहारे को भी एक दिन टूटना जरूर है।

लक्ष्य की दुर्लभता को देखकर मैं हार मानने वाला नही,
अरे, लक्ष्य चूर- चूर कर दूंगा, ऐसा जज्बा रखता हूँ मैं।

कुछ भी असंभव नही, इस दुनिया में ,
यही वो ताबीज है , जो बाँहों मैं बंधा है मेरी।

अकेला था मैं, अकेला हूँ मैं और अकेले ही लक्ष्य को पाऊँगा भी मैं॥


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